मित्रता आचार्य रामचंद्र शुक्ल
मित्रता आचार्य रामचंद्र शुक्ल का जन्म उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के गुना नामक गांव में सन 18 84 में हुआ था उनके पिता पंडित चंद्रबली शुक्ल राठ तहसील में कानूनों को थे शुक्ला जी की शिक्षा राज मिर्जापुर और इलाहाबाद में हूं बाद में आप मिर्जापुर के मिशन स्कूल में चित्रकला के अध्यापक बने आपने स्वाध्याय द्वारा हिंदी अंग्रेजी संस्कृत बांग्ला भाषाएं सीखी आफ काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक तथा विभाग अध्यक्ष बने संघ का देहांत हो गया उसने जी ने एक समालोचक निबंधकार का संपादक के रूप में साहित्य सेवा कि आप हिंदी में वैज्ञानिक समीक्षा के जनक माने जाते हैं हिंदी साहित्य के इतिहास पर आप ने अनूठी और प्रथम मौलिक रचना प्रस्तुत की है चिंतामणि में संकलित मनोविकार होता भावों का आधारित आपके निबंध हिंदी साहित्य में काव्य रचना भी की है आपकी भाषा पर गंभीर और विचारात्मक विवेचनात्मक सहेलियों का प्रयोग किया है बीच-बीच में आता हिंदी साहित्य का इतिहास की भूमिका भ्रमरगीत सार तुलसी साहित्य की प्रसिद्ध रचनाएं है
आचार्य राम शुक्ल द्वारा मनोविकार ओं तथा मनोभाव पर लिखित निबंध में से एक है शुक्ला जी ने इस निबंध में जीवन में मित्र की आवश्यकता का महत्व का प्रतिपादन किया है इसमें निबंधकार ने बताया है कि युवक जब घर से बाहर निकलकर बाहर संसार में प्रवेश होते हैं तो उनको मित्र चुनने में अत्यंत कठिनाई होती है उनका परिचय अनेक लोगों से होता है और यह मेलजोल ही मित्रता में बदल जाता है छात्रा वस्था में मित्रता करने की धुन सवार रहती है कार्यक्षेत्र में प्रवेश करने पर अनेक लोगों ने छात्र का परिचय दिया होता है यह परिचय मित्रता में भी बदलता है परंतु सच्ची मित्रता के लिए अपने संपर्क में आए हुए लोगों के अतीत के चरित्र तथा गुणों के बारे में जानना चाहिए केवल हंसमुख चेहरा देखकर ही किसी को मित्र बनाना ठीक नहीं है क्योंकि मित्र का शास्त्र होना सबसे ज्यादा जरूरी होता है विश्वासपात्र मित्र हमें कठिनाइयों से बचा सकता है वही हमारा मार्गदर्शक हो सकता है सदा सुख के क्षणों में हमारा साथी बन सकता है संकट के समय में दृढ़ता के साथ आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है भावों से सावधान करता है मित्र के कर्तव्य बताते हुए उसे उच्च कोटि के कार्यों में सहायता तथा प्रोत्साहन देने वाला बताया है वह वाला होता है वह आत्मबल और पुरुषार्थ होता है ऐसा ही व्यक्ति हमारा जान पहचान वाला होना चाहिए केवल आमोद प्रमोद के लिए 7 चाहने वालों से अलग हो जाना चाहिए भयानक होता है उसी का होता है और मनुष्य भ्रमित हो जाता है सत्य संगति उसे निरंतर उठाती है बुरे लोगों के साथ से बचना चाहिए बुरे लोगों के साथ रहने का अभ्यस्त होने पर उसका ही नहीं दिखाई देती है विवेक नष्ट होने से भले बुरे की पहचान नहीं रहती अंत में मनुष्य को अपना भक्त बना लेती है कि से हमेशा बचना चाहिए
हम ऐसे लोगों से समय में समाज में प्रवेश करके अपना कार्य आरंभ करते हैं जबकि हमारा चित्र कोमल और हर तरह का संस्कार ग्रहण करने योग्य होता है हमारे भाव और परिमार्जित और हमारी प्रवृत्ति अपरिपक्व रहती है हम लोग कच्ची मिट्टी के मूर्ति के समान देते हैं जिसे जो जिस रूप में चाहे उस रूप में डाल सकता है चाहे तो राक्षस बन सकता है चाहे फिर देवता ऐसे लोगों का साथ करना चाहिए जो हमारे लिए बुरा है जो हम से अधिक दृढ़ संकल्प करें क्योंकि हमें उनकी हर बात बिना विरोध के मान लेनी चाहिए जब घर से बाहर आकर काम करना शुरू करते तो समय उसका मन कोमल होता है वह हर प्रकार के संस्कार और सरलता ग्रहण कर लेता है युवकों के भाव उस समय असंतोष तथा अस्त होते हैं उनकी प्रवृत्ति में अध्यापन होता है अनुभवहीन होते हैं उनके विचार कच्ची मिट्टी की मूर्ति के समान होते हैं मिट्टी से किसी की भी मूर्ति बनाई जा सकती है देवता की मूर्ति बन सकते हैं और राक्षस की मूर्ति भी बन सकती है उस समय उसके लिए संगति का बड़ा महत्व होता है उनको ऐसे लोगों के साथ रहना चाहिए जिसके अंदर से अधिक मजबूत हो ऐसे लोगों की बातों का विरोध के कारण नहीं कर पाते और उनकी उचित अनुचित हर बात माननी पड़ती है
हम ऐसे लोगों से समय में समाज में प्रवेश करके अपना कार्य आरंभ करते हैं जबकि हमारा चित्र कोमल और हर तरह का संस्कार ग्रहण करने योग्य होता है हमारे भाव और परिमार्जित और हमारी प्रवृत्ति अपरिपक्व रहती है हम लोग कच्ची मिट्टी के मूर्ति के समान देते हैं जिसे जो जिस रूप में चाहे उस रूप में डाल सकता है चाहे तो राक्षस बन सकता है चाहे फिर देवता ऐसे लोगों का साथ करना चाहिए जो हमारे लिए बुरा है जो हम से अधिक दृढ़ संकल्प करें क्योंकि हमें उनकी हर बात बिना विरोध के मान लेनी चाहिए जब घर से बाहर आकर काम करना शुरू करते तो समय उसका मन कोमल होता है वह हर प्रकार के संस्कार और सरलता ग्रहण कर लेता है युवकों के भाव उस समय असंतोष तथा अस्त होते हैं उनकी प्रवृत्ति में अध्यापन होता है अनुभवहीन होते हैं उनके विचार कच्ची मिट्टी की मूर्ति के समान होते हैं मिट्टी से किसी की भी मूर्ति बनाई जा सकती है देवता की मूर्ति बन सकते हैं और राक्षस की मूर्ति भी बन सकती है उस समय उसके लिए संगति का बड़ा महत्व होता है उनको ऐसे लोगों के साथ रहना चाहिए जिसके अंदर से अधिक मजबूत हो ऐसे लोगों की बातों का विरोध के कारण नहीं कर पाते और उनकी उचित अनुचित हर बात माननी पड़ती है
हमें आशा करनी चाहिए कि हमारा मित्र हमको बुराइयों से बचाएगा हम कोई अच्छा काम करने का निश्चय करेंगे तो उसमें हमारी मदद करेगा और हमें दर्जा प्रदान करेगा हमारे मन में सत्य पवित्रता और मर्यादा के प्रति जो प्रेम का भाव होगा उसको मजबूत करने में सहयोग देगा यदि हम बुरे काम करने में प्रवेश होंगे तो वह हमें रुकेगा और सावधान करेगा यदि हमारा मन निराशा से भरा होगा तो वह उत्साह से भरेगा वह हर दशा में स्वयं को हमारा सच्चा मित्र करेगा वह हमारी इस तरह सहायता करेगा कि हम अच्छा जीवन बिता सकें जिस प्रकार एक रोग की पहचान कर उसे दूर करता है उसी प्रकार हमारे चरित्र को दोषमुक्त करता है माता अपने संतान के प्रति सजग रहती है और जनता के साथ उसका मार्गदर्शन प्राप्त करना चाहिए
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