जन्म 2 अक्टूबर , 1869 में भारतीय स्वतन्त्रत | गा । | 232 2 . सत्य के प्रयोग ( आत्मकथा अंश ) ( मोहनदास करमचन्द गाँधी ) लेखक - परिचय - मोहनदास करमचन्द गाँधी का जन्म 2 अक्टव । | गुजरात ( काठियावाड़ ) के पोरबन्दर नामक स्थान पर हुआ था । ये भारती के प्रमुख नेता थे । उन्होंने सत्याग्रह के माध्यम से ब्रिटानिया हुकूमत के प्रतिकार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई । उनके सत्याग्रह की नींव अहिंसा यि आधारित थी । उहोंने अपनी इसी नीति के आधार पर भारत को अंग्रेजों से 14 । दिलाई और वे भारत के राष्ट्रपिता कहलाये । आज सारा संसार उन्हें महात्मा गाँधी के नाम से जानता है । नेताजी का चन्द्र बोस ने 6 जुलाई , 1944 को रंगून रेडियो से गांधी के नाम जारी प्रसारण में । उन्हें राष्ट्रपिता कहकर सम्बोधित करते हुए उनके प्रति श्रद्धा ही व्यक्त नहीं की थी बल्कि आजाद हिन्द फौज के लिए उनका आशीर्वाद और शुभ कामनाएँ भी माँगी । थीं । उनकी महानता को स्वीकार करते हुए देश उनका जन्म दिवस ' गाँधी जयन्ती ' और विश्व में ' अन्तराष्ट्रीय अहिंसा दिवस ' के रूप में मनाया जाता है । इनका निधन 30 जनवरी , 1948 को हुआ था । पाठ - सार - प्रस्तुत आत्मकथांश में कुछ अंशों का संकलन है — ' सभ्य पोशाक ' में जहाँ विद्यार्थियों को छद्म आकर्षणों से परे रहकर विद्यार्थी बनने की सलाह दी गई है । वहीं ' बलवान से भिड़न्त ' में अन्याय का विरोध करने , ' आत्मिक शिक्षा ' हमें सबसे और आत्म निर्माण के लिए प्रेरित करती है । ' शान्ति - निकेतन ' अंश भारतीय । मूल्यों से ओत - प्रोत संस्कार , सहयोग व समरसत्ता से साक्षात्कार करता है वहा । का जन्म ' में स्वावलम्बन एवं स्वेदशी का महत्त्व बताया गया है । इन्हीं शाप आधार पर ' सत्य के प्रयोग ' आत्मकथांश का सार इस प्रकार है ( 1 ) अन्नाहार के प्रति श्रद्धा - गाँधीजी ने ' सत्य के प्रयोग । बतलाया है कि अन्नाहार के प्रति मेरी श्रद्धा दिन पर दिन बढ़ती । बतलाया है कि अन्नाहार के संबंध में हमें जितनी पुस्तकें मिली , स | हैं वहीं ' खा है । इन्हीं शीर्षकों के के प्रयोग ' के अन्तर्गत । बढ़ती गयी । उन्होंने मली , सब पढ़ डाली । मेरे जीवन में आहार | इन सब पुस्तकों के अध्ययन का परिणाम यह हुआ कि मेरे ज विषयक प्रयोगों ने महत्त्व का स्थान प्राप्त कर लिया । ( 2 ) मांसाहारी मित्रों की चिन्ता व प्रयास - गाँधीजी न बढ़ते हुए अन्नाहार के प्रभाव को देखकर मेरे उन मांसाहारी मित्र लगी । उन्होंने प्रेमवश यह का जाऊँगा । यही नहीं में बेवकूफ बना रहेगा । आये जो करना है , उसे भू ] “ श यह माना कि ' ' अगर मैं माँस नहीं खाऊगा पोथी पण्डित बन बैलँगा ।
इयं हिन्दी कक्षा 12 - यदि तुम चाहते हो तो बाहर जाकर किसी छोटे से भोजन गृह में और बाहर ही मेरी राह देखो । | अभ्यता सीखने की धुन - गाँधीजी ने अपने मित्रों से सम्बन्ध न तोडने नए और अन्नाहार की अपनी विचित्रता छिपाने के लिए सभ्यता सीखने के लि अपनी सामर्थ्य से परे एक छिछला रास्ता पकड़ा । उन्होंने सभ्य बनने के लिए आ नौर नेवी स्टोर से कपड़े सिलवाये , जेबों में लटकाने लायक सोने की एक बढ़ि वन मंगवाई । आईने के सामने खड़े होकर टाई बाँधने की कला सीखी । इतना महा सभ्य बनने के लिए नृत्य सीखने के लिए नृत्य कक्ष में भर्ती हुआ । भाषण क " सीखने के लिए एक शिक्षक के घर जाने लगा और वायोलिन सीखने के लिए : भी तीन पौण्ड में खरीदा । 4 . बेल साहब की घंटी - गाँधीजी ने बताया है कि सभ्य बनने की धुन हा अल साहब ने मेरे कानों में घंटी बजायी और मैं जाग उठा । सभ्य बनने _ तीन महीने चली होगी । अब मैं अपने लक्ष्य के प्रति उन्मुक्त हो विद्यार्थी बना । सबसे बड़ा थान्हा न होकर ' 4 % ण होता था टटकर दाखिल ग्ध को दूर नहीं यि | प्रमाण जुटाये और | हया से भ्रष्ट अधि यात के धन्ध में भी वृा । कार्य का यह प्रभात | बलवान से भिडन्त - गाँधीजी ने बतलाया कि एशियाई अधिकारियों १ थाना जोहानिस्बर्ग में था । उस थाने में हिन्दुस्तानी , चीनी आदि का र नजण होता था । वहाँ हकदार दाखिल न होकर बिना हक वाले सौ - उल हो रहे थे । शिकायतों को सुनकर गाँधीजी ने सोचा कि यदि । दूर नहीं किया गया तो मेरा ट्रान्सवाल में रहना बेकार हैं । उन्होंने इस 4 और पुलिस कमिश्नर से मिला । हिन्दुस्तानियों और चीनियों अधिकारियों को पकड़वाया । इससे मेरी प्रतिष्ठा बढी और । में भी वृद्धि हुई । गाँधीजी ने इस सम्बन्ध में आगे बताया है । * प्रभाव पड़ा कि मैं जिन गौरों के सम्पर्क में आया वे मेरी तरफ निर्भय रहने लगे गांधीजी ने इस सम्बन्ध ५ ८ { भन्न वताएँ हैं । भल था रहनी चाहिए । पर कारण संसार में विष " इसलिए मैं प्रतिक्षण यह अ असे मधुर सम्बन्ध रखने लगे थे । इस सबन्ध में आगे बतलाया है कि मनुष्य और उसका को का । करने वालों के प्रति सदा आदर अक्षर १ । भल ब । पर इसके अनसार संसार में आचरण कम होता है । इस म विष फैलता रहता है । सत्य के मूल यह अनभव करता है कि जब तक यह हिसा हाथ । | ही नहीं सकता । गांधीजी का मानना था वि ' ती है , पर व्यवस्थापक के प्रति । तिरस्कार करने | आतील ही नह ।
- संजीव पास बुझा 234 शिक्षित करने का ही प्रयास करना चाहिए । उन्होंने इस सम्बन्ध में बतलाया । कि मैंने टॉल्स्टॉय आश्रम में बालकों के प्रति इसी बात का प्रयास किया क्योंकि आत्मा का विकास करने का अर्थ है — चरित्र का निर्माण करना , ईश्वर का ज्ञान पाना , आत्मज्ञान प्राप्त करना । इस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए बालकों को दूसरों की मदद की बहुत ज्यादा आवश्यकता होती है । क्योंकि आत्मा की शिक्षा शिक्षक के आचरण द्वारा ही दी जा सकती है । इस संबंध में गाँधीजी का मानना था कि मुझे टॉलस्टॉय आश्रम में युवक - युवतियों के सामने पदार्थ - पाठ सा बन कर रहन पड़ा । गाँधीजी ने इस संबंध में बतलाया है कि टॉलस्टॉय आश्रम में एक युवक बहुत ऊधम मचाता था , झूठ बोलने के साथ वह किसी से भी दबता भी नहीं था । मैं कभी भी विद्यार्थियों को सजा देने के पक्ष में नहीं रहा लेकिन उस ऊधमी बालक । पर मुझे अनायास ही क्रोध आया और मैंने उसके पास पड़े रूल को उठाकर उसका बाँह पर दे मारा । उस समय मैं काँप रहा था और विद्यार्थी रो पडा । क्योंकि उसे मर दुःख का दर्शन हुआ । इस बात का पछतावा मेरे मन में हमेशा ही बना रहा । इसीलिए मैं विद्यार्थियों को मार - पीट कर पढ़ाने का विरोधी रहा हूँ । 7 . शांति निकेतन - गाँधीजी ने बतलाया है कि राजकोट में जाने पर में | | सबसे पहले काका साहब कालेलकर से मिला वे उस समय यहीं रहते थे । चिंतामणि शास्त्री के साथ रहकर संस्कृत सिखाने में हिस्सा लेते थे । गाँधीजी ने जाकर वैतनिक रसोइयों के वास्ते शिक्षक और विद्यार्थी अपनी रसोई स्वयं से प्रस्ताव रखा जिसे मतिश्री ने मंजूरी दे दी । सभी सामदायिक भाव से परित अपने समुदाय के आधारित व्यंजन व्यवस्था में जुट गये । पर कुछ दिनों के छ दिनों के बाद यह | गाँधीजी ने पर मिलने पर वन में कुछ दिनों तक रहने 8 . खादी का जग गया और शारी अनुसार भारत । । प्रयोग बन्द हो गया । | गाँधीजी ने बतलाया है कि मेरा विचार शान्ति निकेतन में कुछ दिन का था लेकिन गोखले के अवसान का तार मिलने पर मैं पूना चला गया । निकेतन शोक में डूब गया । गांधीजी ने एक वर्ष तक गोखले के कहे अनुसार का भ्रमण किया । की कगालियत मिटाने के लिए चरखे का आरम्भ किया । करघा शुरु का जन्म - गांधीजी ने स्वराज्य प्राप्ति की आस में और हि गांधीजी को वही पश्किल का सामना करना पड़ा था । क्या वालों की उन्हें कमी महसूस हुई थी । दूसरी ओर आश्रमवारी पहनना चन्द कर दिया । इस कारण से बाहर के बुनकरों से आश्रमवार आवश्यकता का कपडा बनवाना पड़ता था । बुनकर सारा कपड़ा विर ही बुनते थे क्योंकि देशी मिलें महीन सूत कातती ही नहीं थी । यो हम सब हाथ से सूत कातने को अधीर हो उठे । लेकिन सत कातने हल नहीं दिखा । सन् 1917 में विधवा तारा | और हिन्दुस्तान वा शुरू करने में र काम करने मल के कप ही बुनते थे कपड़ा बुनवान बाहर के बुनकरों आश्रमवासियों को अपने | कपड़ा विलायती सूत । का हल मिला । १ सब देखकर । सूत कातने की समस्या
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