आखिरी चट्टान - मोहन राकेश

                    आखिरी चट्टान | ( मोहन राकेश )   परिचय - मोहन राकेश ( असली नाम मदनमोहन मुगलानी ) का जन्म अमृतसर में सन् 1925 में हुआ । उन्होंने पहले आरिएंटल कालेज , लाहौर से संस्कृत में एम . ए . किया और विभाजन के बाद जालन्धर आये । फिर पंजाब विश्वविद्यालय से एम . ए . किया । जीविकोपार्जन के लिए कुछ वर्षों अध्यापन कार्य किया , किन्तु लाहौर , मुम्बई , जालन्धर और दिल्ली में रहते हुए कहीं भी स्थायी रूप से नहीं रहे । इन्होंने कुछ समय तक ‘ सारिका ' पत्रिका का सम्पादन किया । ये ' नयी कहानी ' आन्दोलन के अग्रणी कथाकार माने जाते हैं । मोहन राकेश बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे । उन्होंने उपन्यास , नाटक , कहानी , निबन्ध एवं यात्रा - वृत्तान्त आदि सभी विधाओं पर लेखनी चलायी । इनका सन् 1972 में असमय निधन हुआ ।  आषाढ़ का सारा दिन ' , ' लहरों के राजहंस ' तथा ' आधे - अधूरे ' इनके चर्चित नाटक हैं , जो रंगमंच की दृष्टि से पूर्ण सफल हैं । ' अंधेरे बन्द कमरे ' , ' अन्तराल ' , ‘ न आने वाला कल ' उनके उपन्यास तथा ' इंसान के खण्डहर ' , ' नये बादल '

31 अक्टूबर सरदार पटेल का जन्मदिन

31 अक्तूबर/जन्म-दिवस लौहपुरुष सरदार पटेल 15 अगस्त, 1947 को अंग्रेजों ने भारत को स्वाधीन तो कर दिया; पर जाते हुए वे गृहयुद्ध एवं अव्यवस्था के बीज भी बो गये। उन्होंने भारत के 600 से भी अधिक रजवाड़ों को भारत में मिलने या न मिलने की स्वतन्त्रता दे दी। अधिकांश रजवाड़े तो भारत में स्वेच्छा से मिल गये; पर कुछ आँख दिखाने लगे। ऐसे में जिसने इनका दिमाग सीधाकर उन्हें भारत में मिलाया, उन्हें हम लौहपुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल के नाम से जानते हैं। वल्लभभाई का जन्म 31 अक्तूबर, 1875 को हुआ था। इनके पिता श्री झबेरभाई पटेल ग्राम करमसद (गुजरात) के निवासी थे। उन्होंने भी 1857 में रानी झाँसी के पक्ष में युद्ध किया था। इनकी माता लाड़ोबाई थीं। बचपन से ही ये बहुत साहसी एवं जिद्दी थे। एक बार विद्यालय से आते समय ये पीछे छूट गये। कुछ साथियों ने जाकर देखा, तो ये धरती में गड़े एक नुकीले पत्थर को उखाड़ रहे थे। पूछने पर बोले - इसने मुझे चोट पहुँचायी है, अब मैं इसे उखाड़कर ही मानूँगा। और वे काम पूरा कर ही घर आये। एक बार उनकी बगल में फोड़ा निकल आया। उन दिनों गाँवों में इसके लिए लोहे की सलाख को लालकर उससे फोड़े को दाग दिया जाता था। नाई ने सलाख को भट्ठी में रखकर गरम तो कर लिया; पर वल्लभभाई जैसे छोटे बालक को दागने की उसकी हिम्मत नहीं पड़ी। इस पर वल्लभभाई ने सलाख अपने हाथ में लेकर उसे फोड़े में घुसेड़ दिया। खून और मवाद देखकर पास बैठे लोग चीख पड़े; पर वल्लभभाई ने मुँह से उफ तक नहीं निकाली। साधारण परिवार होने के कारण वल्लभभाई की शिक्षा निजी प्रयास से कष्टों के बीच पूरी हुई। अपने जिले में वकालत के दौरान अपनी बुद्धिमत्ता, प्रत्युत्पन्नमति तथा परिश्रम के कारण वे बहुत प्रसिद्ध हो गये। इससे उन्हें धन भी प्रचुर मात्रा में प्राप्त हुआ। इससे पहले उनके बड़े भाई विट्ठलभाई ने और फिर वल्लभभाई ने इंग्लैण्ड जाकर बैरिस्टर की परीक्षा उत्तीर्ण की। 1926 में वल्लभभाई की भेंट गांधी जी से हुई और फिर वे भी स्वाधीनता आन्दोलन में कूद पड़े। उन्होंने बैरिस्टर वाली अंग्रेजी वेशभूषा त्याग दी और स्वदेशी रंग में रंग गये। बारडोली के किसान आन्दोलन का सफल नेतृत्व करने के कारण गांधी जी ने इन्हें ‘सरदार’ कहा। फिर तो यह उपाधि उनके साथ ही जुड़ गयी। सरदार पटेल स्पष्ट एवं निर्भीक वक्ता थे। यदि वे कभी गांधी जी से असहमत होते, तो उसे भी साफ कह देते थे। वे कई बार जेल गये। 1942 के ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ में उन्हें तीन वर्ष की सजा हुई। स्वतन्त्रता के बाद उन्हें उपप्रधानमन्त्री तथा गृहमन्त्री बनाया गया। उन्होंने केन्द्रीय सरकारी पदों पर अभारतीयों की नियुक्ति रोक दी। रेडियो तथा सूचना विभाग का उन्होंने कायाकल्प कर डाला। गृहमन्त्री होने के नाते रजवाड़ों के भारत में विलय का विषय उनके पास था। सभी रियासतें स्वेच्छा से भारत में विलीन हो गयीं; पर जम्मू-कश्मीर, जूनागढ़ तथा हैदराबाद ने टेढ़ा रुख दिखाया। सरदार की प्रेरणा से जूनागढ़ में जन विद्रोह हुआ और वह भारत में मिल गयी। हैदराबाद पर पुलिस कार्यवाही कर उसे भारत में मिला लिया गया। जम्मू कश्मीर का मामला प्रधानमन्त्री नेहरु जी ने अपने हाथ में रखा। इसी से उसका पूर्ण विलय नहीं हो पाया और वह आज भी सिरदर्द बनी है। 15 दिसम्बर, 1950 को भारत के इस महान सपूत का देहान्त हो गया।

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